बर्क नाम का एक बहुत बड़ा इतिहासज्ञ विश्व-इतिहास लिख रहा था। और कोई पंद्रह वर्षों से लिख रहा था निरंतर। पंद्रह वर्षों का सारा जीवन उसने विश्व-इतिहास के लिखने में लगाया हुआ था। एक दिन दोपहर की बात है, वह इतिहास लिखने में लगा हुआ है और पीछे शोरगुल हुआ है। दरवाजा खोल कर वह पीछे गया। उसके मकान के बगल से गुजरने वाली सड़क पर झगड़ा हो गया है। एक आदमी की हत्या कर दी गई है। बड़ी भीड़ है। सैकड़ों लोग इकट्ठे हैं, आंखों देखे गवाह मौजूद हैं। और वह एक-एक आदमी से पूछता है कि क्या हुआ? तो एक आदमी कुछ कहता है! दूसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! तीसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! आंखों देखे गवाह मौजूद हैं, लाश सामने पड़ी है, खून सड़क पर पड़ा हुआ है, अभी पुलिस के आने में देर है, हत्यारा पकड़ लिया गया है, लेकिन हर आदमी अलग-अलग बात कहता है! किन्हीं दो आदमियों की बातों में कोई तालमेल नहीं कि हुआ क्या! झगड़ा कैसे शुरू हुआ? कोई हत्यारे को जिम्मेवार ठहरा रहा है, कोई जिसकी हत्या की गई, उसको जिम्मेवार ठहरा रहा है! कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ कह रहा है! वे सब आंखों देखे गवाह हैं! बर्क खूब हंसने लगा। लोगों ने पूछा, आप किसलिए हंस रहे हैं? आदमी की हत्या हो गई! उसने कहा, मैं किसी और कारण से हंस रहा हूं। अंदर आया और वह पंद्रह वर्षों की जो मेहनत थी, उसमें आग लगा दी–वह जो विश्व-इतिहास लिख रहा था। और अपनी डायरी में लिखा कि मैं हजारों साल पहले की घटनाओं पर इतिहास लिख रहा हूं, मेरे घर के पीछे एक घटना घटती है, जिसमें चश्मदीद गवाह मौजूद हैं, फिर भी किसी का वक्तव्य मेल नहीं खाता, तो हजार-हजार साल पहले जो घटनाएं घटी हैं, उनके लिए किस हिसाब से हम मानें कि क्या हुआ, क्या नहीं हुआ? किसको मानें? कौन गवाही है? कौन ठीक है, कौन गलत है, कहना मुश्किल है। बर्क ने लिखा कि इतिहास भी एक कल्पना मालूम पड़ती है, तथ्य नहीं। इतिहास भी एक कल्पना हो सकती है, अगर हमने बहुत ऊपर से पकड़ने की कोशिश की, और कल्पना भी सत्य हो सकती है, अगर हमने बहुत भीतर से पकड़ने की कोशिश की। सवाल आब्जेक्टिव, वस्तुगत नहीं है, सवाल सदा सब्जेक्टिव है। – ओशो “