किसी नगर में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत बढ़िया कम्बल तैयार करता था। कत्तिनों से अच्छी ऊन खरीदता और भक्ति के गीत गाते हुए आनंद से कम्बल बुनता। वह सच्चा था, इसलिए उसका धंधा भी सच्चा था, रत्तीभर भी कहीं खोट-कसर नहीं थी।
एक दिन उसने एक साहूकार को दो कम्बल दिए। साहूकार ने दो दिन बाद उनका पैसा ले जाने को कहा। साहूकार दिखाने को तो धरम-करम करता था, माथे पर तिलक लगाता था, लेकिन मन उसका मैला था। वह अपना रोजगार छल-कपट से चलाता था।
दो दिन बाद जब जुलाहा अपना पैसा लेने आया तो साहूकार ने कहा – “मेरे यहां आग लग गई और उसमें दोनों कम्बल जल गए अब मैं पैसे क्यों दूं?”
जुलाहा बोला – “यह नहीं हो सकता मेरा धंधा सच्चाई पर चलता है और सच में कभी आग नहीं लग सकती।
जुलाहे के कंधे पर एक कम्बल पड़ा था उसे सामने करते हुए उसने कहा – “यह लो, लगाओ इसमें आग।”
साहूकार बोला – “मेरे यहां कम्बलों के पास मिट्टी का तेल रखा था। कम्बल उसमें भीग गए थे। इस लिए जल गए।
जुलाहे ने कहा – “तो इसे भी मिट्टी के तेल में भिगो लो।”
काफी लोग वहां इकट्ठे हो गए। सबके सामने कम्बल को मिट्टी के तेल में भिगोकर आग लगा दी गई। लोगों ने देखा कि तेल जल गया, लेकिन कम्बल जैसा था वैसा बना रहा।
जुलाहे ने कहा – “याद रखो सांच को आंच नहीं।”
साहूकार ने लज्जा से सिर झुका लिया और जुलाहे के पैसे चुका दिए।
सच ही कहा गया है कि जिसके साथ सच होता है उसका साथ तो भगवान भी नहीं छोड़ता।