जितनी जल्दी बदल जाओ उतना अच्छा।

कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था एक आदमी की। वह मरणशय्या पर पड़ा है। गीता सुनायी जा रही है। वह बेहोश है और बीच-बीच में सिर हिलाता है, हाथ ऊपर उठाता है। पास में पड़ोस की स्त्रियाँ बैठी हैं। कोई कहती है कि देखो, काका हाथ ऊपर उठा रहे हैं, शायद भगवान की तरफ उठा रहे हैं। आखिर एक आदमी बैठा थोड़ी देर से देख रहा था, उसने कहा–बकवास बंद करो! मैं जानता हूँ काका को। उसने खीसे से बीड़ी निकाली और काका के मुँह में लगा दी और काका मरते वक्त बीड़ी पीने लगे। इधर गीता चल रही है! और दोत्तीन उन्होंने कश लिए, धुऑं मुँह से निकला, फिर शांति से मर गए। जिंदगी-भर जो लत रही . . . ! उस आदमी ने कहा कि बकवास बंद करो, यह भगवान वगैरह की तरफ हाथ नहीं उठा रहे, इनको बीड़ी चाहिए। मुझे भली-भाँति मालूम है, बिना बीड़ी पिए नहीं मरेंगे। और जब उन्होंने दोत्तीन कश लगा लिए. . . वह उनका राम-नाम हुआ; हरिभजन हो गया!. . . तब वे शांति से मरे। मरते वक्त तक भी तुम हरि को याद थोड़े ही कर पाओगे। याद भी आएगी तो बीड़ी की याद आएगी, कि कोई ले आता इस वक्त, कि होता कोई प्रभु का प्यारा और ले आता इस वक्त! अब अपने से तो जाते बनता नहीं, बोल भी खो गया है, बोल भी नहीं सकते हैं और गीता चल रही हैः “सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ गीता चल रही है! और स्वभावतः गीता चल रही है, पड़ोस की स्त्रियाँ–धार्मिक स्त्रियाँ ऐसी जगह इकट्ठी हो जाती हैं–और काका हाथ उठा रहे हैं! सोचा होगा कि काका भी आखिरी अवस्था में सिद्धावस्था को पहुँच गए हैं। काका वहीं हैं जहाँ सदा थे। गीता वगैरह नहीं सुनी जा रही है। उनको तलफ लगी है। आदमी बदल जाए जवानी में, जब ऊर्जा हो, जब शक्ति हो, जब प्राण हों, तो आसानी होती है। क्योंकि बदलाहट के लिए भी तो ऊर्जा की जरूरत होती है। जितनी जल्दी बदल जाओ उतना अच्छा। -ओशो”

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