क्योंकि अहंकार ही शत्रु है

मैं हिमालय की यात्रा पर था। मनाली में एक वृक्ष के नीचे, पता चला मुझे कि एक साधु कोई बीस वर्षो से बैठता है। वहीं रहता है। वही वृक्ष उसका आवास है। घना वृक्ष था, सुंदर वृक्ष था। अभी साधु भिक्षा मांगने गया था। तो मैं उस वृक्ष के नीचे बैठ रहा। जब वह लौटकर आया तो मैने आंखें बंद कर लीं। उसने मुझे देखा और कहा कि उठिए, यह वृक्ष मेरा है। यहां मैं बीस साल से बैठता हूं।’ मैंने कहा, ‘वृक्ष किसी का भी नहीं होता। और बीस साल से नहीं, तुम बीस हजार साल से बैठते होओ, इससे क्या फर्क पड़ता है? अभी तो मैं बैठा हूं। जब मैं हटूं तब तुम बैठ जाना। अब मैं हटनेवाला नहीं हूं।’ वे तो एकदम आगबबूला हो गए कि यह जगह मेरी है! हरेक को पता है। यहां और भी बहुत साधु—संन्यासी आते हैं, सबको मालूम है कि यह वृक्ष मेरा है। मैंने उनको और भडकाया। तो उनका क्रोध बढ़ता चला गया। फिर मैंने उनसे कहा कि मैं सिर्फ यह जानने के लिए आपको भड्का रहा था,
मुझे कुछ लेना—देना नहीं वृक्ष से, मुझे यहां रहना भी नहीं, मैं सिर्फ यह देख रहा था कि आप बीस साल पहले घर छोड़ दिए पत्नी बच्चे छोड दिए आपकी कथाएं मैंने सुनी हैं कि आप बड़े त्यागी हैं, मगर अब यह वृक्ष को पक्डकर बैठे हैं! यह आपका हो गया! यह जमीन आपकी हो गयी! इस पर अब कोई दूसरा बैठ नहीं सकता। तो यह नया घर बसा लिया। यह स्वाभाविक है। अगर समझ न हो तो तुम जो भूल करते थे, फिर—फिर करोगे। नये—नए ढंग से करोगे। नयी—नयी दिशाओं में करोगे। मगर भूल से बचोगे कैसे? निश्चित ही मोह के समान और कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि अहंकार ही शत्रु है। और अहंकार का जो फैलाव है, जहां—जहां अहंकार जुड़ जाता है, वहां वहां मोह है। जहां तुमने कहा मेरा, वहां मोह है। इसलिए मैं कहता हूं मत कहना—मेरा धर्म; मत कहना—मेरा शास्त्र, मेरी कुरान, मेरी बाइबिल, मेरी गीता! मत कहना—मेरा देश, मेरी जाति, मेरा वर्ण, मेरा कुल! ये सब मोह ही हैं और बहुत सूक्ष्म मोह हैं। -ओशो”

Leave a Comment

Your email address will not be published.