कुएं का मेंढक

तुमने कहानी सुनी है न! सागर का एक मेंढक एक बार एक कुएं में चला आया। कुएं के मेंढक ने पूछा कि मित्र, कहां से आते हो? उसने कहा: सागर से आता हूं। कुएं के मेंढक ने तो सागर शब्द सुना ही नहीं था। उस ने कहा: सागर! यह किस कुएं का नाम है? सागर से आया मेंढक हंसने लगा, उसने कहा: यह कुएं का नाम नहीं है। तो सागर क्या है?बड़ी मुश्किल हुई सागर के मेंढक को, वह कैसे समझाए सागर क्या है! कुएं का मेंढक कभी कुएं के बाहर गया नहीं था। सागर तो दूर, उसने तालत्तालाब भी नहीं देखे थे। कुएं में ही बड़ा हुआ। कुएं में ही जीया, कुआं ही उसका संसार था। वही उसका समस्त विश्व था। कुएं के मेंढ़क ने एक तिहाई कुएं के छलांग लगाई और कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर? सागर के मेंढक ने कहा: मित्र, तुम मुझे बड़ी अड़चन में डाले दे रहे हो। सागर बहुत बड़ा है! तो उसने दो तिहाई कुएं में छलांग लगाई, उस ने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर? सागर के मेंढक ने कहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं, तुम्हें कैसे बताऊं सागर बहुत बड़ा है। तो उसने पूरे कुएं में एक कोने से दूसरे कोने तक छलांग लगाई, उसने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर? और जब सागर के मेंढक ने कहा यह तो कुछ भी नहीं है, अनंत—अनंत गुना बड़ा है— तो कुएं के मेंढक ने कहा: तेरे जैसा झूठ बोलनेवाला मेंढक मैंने कभी देखा नहीं। बाहर निकल! किसी और को धोखा देना। तूने मुझे समझा क्या है? मैं कोई बुद्धू नहीं हूं कि तेरी बातों में आ जाऊं! इसी वक्त बाहर निकल! इस तरह के झूठ बोलनेवालो को इस कुएं में कोई जगह नहीं! यह कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। यह आदमी की कहानी है। सुकरात को जब जहर दिया गया तो एथेन्स के जजों ने यह निर्णय लिया कि या तो तुम मरने को राजी हो जाओ और या फिर तुम जो बातें कहते हो, वे बातें कहना बंद कर दो। दो में से कुछ भी चुन लो। तुम जो बातें कहते हो, वे बंद कर दो, तो तुम जी सकते हो। और अगर तुम उन बातों को जारी रखोगे तो सिवाय मृत्यु के और कोई उपाय नहीं है। फिर मृत्यु के लिए राजी हो जाओ। सुकरात बातें क्या कह रहा था? सागर की बातें कर रहा था—कुएं के लोगों से! और कुएं के भीतर रहनेवाले लोग सागर की बात सुनकर नाराज हो जाते हैं। सुकरात का अपराध था यही…यही अपराध अदालत ने तय किया था कि तुम लोगों को बिगाड़ते हो। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है! सत्य की ऐसी शुद्ध अभिव्यक्ति बहुत कम लोगों में हुई है जैसी सुकरात में। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है, यह अदालत का फैसला था। अदालत एथेन्स के सब से ज्यादा बुद्धिमान लोगों से बनी थी। एथेन्स में जो सब से ज्यादा प्रतिभाशाली लोग थे, वे ही उस अदालत के न्यायाधीश थे। उन्होंने एक मत से निर्णय दिया था कि तुम चूंकि लोगों को बिगाड़ते हो, खासकर युवकों को…क्योंकि बूढ़े तो तुम्हारी बातों में आने से रहे, युवक तुम्हारी बातों में आ जाते हैं। क्योंकि बूढ़े तो इतने अनुभवी हैं कि तुम उनको धोखा नहीं दे सकते। बूढ़े मतलब जो कुएं में इतना रह चुके हैं कि अब मान ही नहीं सकते कि कुएं से भिन्न कुछ और हो सकता है। जवान वह, जो अभी कुएं में नया—नया आया है और जो सोचता है कि हो सकता है कि कुएं से भी बड़ी चीज हो। कौन जाने! जवान में जिज्ञासा होती है, खोज होती है, साहस भी होता है; नए को सीखने की तमन्ना भी होती है। बूढ़ा तो सीखना बंद कर देता है। जैसे—जैसे आदमी बूढ़ा होता जाता है वैसे—वैसे उसका सीखना क्षीण होता जाता है। और जो आदमी अपने बुढ़ापे तक सीखने को राजी है, वह बूढ़ा है ही नहीं। उसका शरीर ही बूढ़ा हुआ, उसकी आत्मा जरा भी बूढ़ी नहीं है। उसके भीतर भी उतनी ही ताजगी है जितनी किसी छोटे बच्चे के भीतर हो। जो अंत तक सीखने को राजी है, उसके भीतर सदा ही युवावस्था बनी रहती है। युवावस्था की ताजगी और युवावस्था का बहाव और युवावस्था की प्रतिभा बनी रहती है। लेकिन लोग जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। तुम सोचते हो कि सत्तर साल में बूढ़े होते हैं तो तुम गलत सोचते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिकतर लोग बाहर वर्ष की उम्र के बाद रुक जाते हैं, फिर सीखते ही नहीं। बारह वर्ष—यह औसत मानसिक उम्र है दुनिया की! बारह वर्ष भी कोई उम्र हुई! सात वर्ष की उम्र में बच्चा पचास प्रतिशत बातें सीख लेता है अब बस पचास प्रतिशत और सीखेगा। और अभी जिंदगी पड़ी है पूरी। और बारह वर्ष की उम्र तक पहुंचते—पहुंचते, या बहुत हुआ तो चौदह वर्ष की उम्र तक पहुंचते—पहुंचते सब ठहर जाता है। फिर सीखने का उपक्रम बंद हो जाता है। फिर तुम अपने ही कुएं के गोल घेरे में घूमने लगते हो। फिर तुम सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिता नहीं रह जाते, रेल की पटरी पर दौड़ती हुई मालगाड़ी हो जाते हो—मालगाड़ी, पैसेन्जर गाड़ी ।जीवन में और कोई स्वतंत्रता नहीं रह जाती। उसी पटरी पर दौड़ते—दौड़ते एक दिन मर जाते हो। कहीं पहुंचना नहीं हो पाता। अधिक लोग तो मेरी बात नहीं समझेंगे। समझेंगे तो गलत समझेंगे। समझेंगे तो कुछ का कुछ समझेंगे। मैं इससे अन्यथा की आशा भी नहीं रखता। इसलिए मुझे इस से कुछ अड़चन नहीं होती। मुझे इस से कुछ विषाद नहीं होता। इस से मुझे कोई चिंता नहीं होती। यह होना ही चाहिए। अगर लोग मेरी बात बिलकुल वैसी ही समझ लें जैसा मैं कह रहा हूं तो चमत्कार होगा। ऐसा चमत्कार न कभी हुआ है न हो सकता है। अभी मनुष्य से ऐसी आशा करनी असंभव है। -ओशो”

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